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________________ ८० : धर्मविन्दु । सरसोको नहीं उठा सकता वह मेरु पर्वतको कैसे धारण कर सकता है ? अतः वह जीव जो अज्ञाताके कारण अयोग्य है, धर्मश्रवणका अधिकारी नहीं। कहा है कि 'सूर्सस्य क्वचिदर्थ नाधिकार.'-मूर्ख किसी भी अर्थ (काम) का अधिकारी नहीं है । वह मूढ परम पुरुषार्थ (मोक्ष) का हेतुरूप धर्मवीजको अंगीकार करने का कार्य कैसे कर सकते हैं । जो बोधके जितना योग्य हो उसे उतना ही देना चाहिये। इति सद्धर्मदेशनाई उक्तः, इदानीं तद्विधि मनुवर्णयिष्याम इति ॥१॥ (५९) मूलार्थ-इस प्रकार सद्धर्मकी देशनाका अधिकारी बता कर उसकी देशना विधि कहते हैं ॥१॥ विवेचन-सद्धर्मदेशनाही-लोकोत्तर धर्मकी देशनाके योग्य, उसे हृदयंगम करने योग्य (सामान्य धर्मपालन करनेवाला गृहस्थ ) वद्विधिम्-सद्धर्मका देशना क्रम । इस प्रकार पूर्व अध्यायमें वर्णित गृहस्थके सामान्य धर्मको बताया है उसे पालन करनेवाला गृहस्थ लोकोत्तर धर्मको हृदयमें स्थापित करने योग्य हे व उसका श्रवण करनेका अधिकारी है, अतः सदर्भदेशनाका अधिकारी व उसके गुण व धर्मका वर्णन करनेवाली अव देशनाविधि कहते है। तत्प्रकृतिदेवताधिमुक्तिज्ञानमिति ॥२॥ (६०)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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