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________________ ४४ भरी छलाँग हतनकहँ जिहिने, ऐसे खल मृगपतिके । पंजनि परे वचै तव-पद- गिरि, आश्रित जन शुभमतिके३९ - अन्वयार्थी — और हे नाथ, ( भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकर भूषित भूमिभागः ) विदारे हुए हाथियोंके मस्तकोंसे जो रक्तसे भीगे हुए उज्वल मोती' पड़ते हैं, उनके समूहसे जिसने पृथ्वीके भाग शोभित कर दिये हैं, ऐसा तथा (बेद्धक्रमः) आक्रमण करनेके लिये बांधी है चौकड़ी अथवा छलांग जिसने ऐसा ( हरिणाधिपः अपि ) सिंह भी ( क्रमगतं ) पंजे में पड़े हुए (ते) आपके ( क्रमयुगाचलसंश्रितं ) दोनों चरणरूपी पर्वतोंका आश्रय लेनेवाले मनुष्यपर ( न आक्रामति ) आक्रमण नहीं करता है । भावार्थ:- आपके चरणोंका आश्रय लेनेवाले भक्तजनोंपर भयानक सिंह भी आक्रमण नही कर सकता है ॥ ३९ ॥ कल्पान्तकालपवनोद्धतवह्निकल्पं दावानलं ज्वलितमुज्वलमुत्स्फुलिङ्गम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं 'त्वन्नाम कीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥ ४० ॥ 1 १ मदोन्मत्त हाथियोंके मस्तकोंमें मोती उत्पन्न होते हैं, जिन्हें गजमुक्ता कहते हैं । २ “बद्धक्रमः" का "बंधे हुए है पॉव जिसके” यह भी तात्पर्य है । क्योंकि सिंह जो खभावसे ही क्रूर होता है, यदि वाघ दिया जावे, तो फिर उसके क्रोधका ठिकाना नहीं रहता है परन्तु उस क्रोधावस्थामे भी वह आपके शरणागतोंका घात नहीं कर सकता है । ३ यद्यपि अनेक प्राचीन
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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