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________________ ४३ ऐसो उद्धत ऐरावतसम, गज जो सनमुख धावै। तौ हू तुवपदसेवक ताकों, देख न नेकु डरावै ॥३८॥ अन्वयार्थों-हे नाथ, (श्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूलमत्तभ्रमझमरनादविवृद्धकोपम् ) झरते हुए मदसे जिसके गंडस्थल मलीन तथा चंचल हो रहे है, और उनपर उन्मत्त होकर भ्रमण करते हुए भौरे अपने शब्दोंसे जिसका क्रोध बढ़ा रहे हैं, ऐसे (ऐरावताभम् ) ऐरावत हाथीके समान आकारवाले तथा ( उद्धतं ) उद्धत अर्थात् अकुशादिको नही माननेवाले और (आपतन्तं) साम्हने आते हुए (इभम् ) हाथीको ( दृष्ट्वा) देखकर (भवत् आश्रितानां) आपके आश्रयमें रहनेवाले पुरुषोंको (भयं ) भय (नो) नही ( भवति) होता है । भावार्थ:-अत्यन्त उच्छंखल हाथीको देखकर भी आपके भक्तजन भयभीत नही होते है ॥ ३८॥ भिन्नेभकुम्भगलदुज्वलशोणिताक्त मुक्ताफलप्रकरभूषितभूमिभागः। बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥ जो मदमत्त गजनके उन्नत, कुंभ विदारि नखनसों। सिंगारत भुवि रुधिरसुरंजित, सुन्दर सित मोतिनसों॥ १ मदोन्मत्त हाथीके कपोलोंसे मद झरता है। उसकी सुगन्धिसे भौरे चारों ओरसे आकर झूमते हैं और गुंजार करते हैं । २ पृथ्वी । ३ रकसे भीगी हुई।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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