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________________ १४ थे । ( यत्) क्योंकि (ते समानम् ) तुम्हारे समान ( रूपम् ) रूप ( पृथिव्यां ) पृथिवी में (अपरं) दूसरा ( न हि ) नही (अस्ति ) है । भावार्थ:- हे भगवन्, आपके शरीरकी रचना जिन पुद्गल परमाणुओंसे हुई है, वे परमाणु संसारमें उतने ही थे। क्योंकि यदि वे परमाणु अधिक होते, तो आप जैसा रूप औरोंका भी दिखलाई देता । परन्तु यथार्थमें आपके समान रूपवान् पृथिवीमें कोई दूसरा नही है ॥ १२ ॥ с वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि निःशेषनिर्जितजगन्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलङ्कमलिनं व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥१३॥ कहँ सुरउरगनर-नयन - आनंद, - करन तुव मुखचंद है । तिहुँ लोक उपमावृन्द जिहिंके, होत सनमुख मंद है | अरु कहां शशिको मलिन बिम्ब, कलंकवारो दाससो । जो होत दिनके होत ही, छबि- हीन श्वेत पलाससो ॥१३॥ अन्वयार्थी— हे नाथ, (सुरनरोरगनेत्रहारि ) देव, मनुष्य, और नागोंके नेत्रोंको हरणकरनेवाला तथा ( निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् ) जीती है तीन लोकके कमल, चन्द्रमा, दर्पण आदि सब ही उपमाएँ जिसने ऐसा, (क) कहां तो (ते) तुम्हारा ( वक्रं ) मुख और ( क्व ) कहां (निशाकरस्य ) चन्द्रमाका १ टेसू अर्थात् ढाक के पत्ते जैसा ।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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