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________________ (क्षारं जलं ) खारे पानीको ( रसितुं ) पीनेकी (इच्छेत् ) इच्छा करता है ? भावार्थ-जैसे क्षीरसमुद्रके जलको पीनेवाला फिर खारे पानीके पीनेकी इच्छा नहीं करता है, उसी प्रकार जो आपके दर्शन करलेता है, उसे फिर दूसरे देवोंके देखनेसे सतोष नही होता ॥ ११ ॥ यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मापितस्त्रिभुवनैकललामभूत । तावन्त एव खल्लु तेऽप्यणवः पृथिव्यां __ यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२॥ त्रिभुवनशिरोभूषण, अनूपम, शान्तभावनसों भरे । जिन रुचिर शंचि परमानुवनसों, आप वनिकै अवतरे।। ते अनु हते जगमें तिते ही, जानि मुहि ऐसी परै। जात अपूरव आप जैसो, रूप नहिं कह लखि परै॥१२॥ अन्वयार्थी-(त्रिभुवनैकललामभूत ) हे तीन लोकके एक शिरोभूषणभूत ( यैः ) जिन (शान्तरागरुचिभिः ) शान्त भावोंकी छायारूप (परमाणुभिः) परमाणुओसे ( त्वं ) तुम (निर्मापितः ) बनाये गये हो, (खलु) निश्चय करके (ते)वे (अणवः) परमाणु ( अपि) भी ( तावन्त एव ) उतने ही १ सुन्दर। २ पवित्र। ३ क्योंकि ( हेतु)। ४ "शिर-पुरो न्यस्तमस्तकाभरणं ललाममुच्यते।" सिरके आगे मस्तकके आभरणको ललाम कहते हैं।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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