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________________ दर्शनोंका लाभ कैसे हो सकता है ? आज मेरे अहोभाग्य हैं, जो मैं आपसे साक्षात्कार करके सफलमनोरथ हुआ।" इसके पश्चात् महाराजने पूछा, आपका नाम इतना बडा है, फिर यह छोटासा प्रन्य तो आपको नहीं शोभता । अवश्य ही आपने कोई महझंथ बनाया होगा या यनानेका प्रारंभ किया होगा । इतना सुनकर कालि. दाससे न रहा गया। वे बोले, "महाराज, यह नाममाला हम लोगोंकी है । इसका यथार्थ नाम नाममंजरी है । ब्राह्मण ही इसके वनानेवाले हो सकते हैं । ये वेचारे वणिक् लोग प्रन्थोंके मर्मको क्या जानें ?" यह बात धनंजयको बहुत बुरी लगी । और लगना ही चाहिये । क्योंकि दिन दहाटे उनकी एक कृतिपर हडताल फेरी जाती थी। उन्होंने कहा-" महाराज, यह सर्वथा झूठ है । मैंने ही यह ग्रन्थ वालकोंके वोधके लिये वनाया है । यह सब कोई जानते है । आप पुस्तक मंगाके देख लीजिये। जान पड़ता है, इन लोगोंने मेरा नाम लोप करके अपना नाम रख दिया है, और जबर्दस्ती नाममंजरी बना दी है ।" यह सुनकर महाराजने ब्रामणोंसे कहा, "यह तुमने बड़ा अनर्थ किया, जो दूसरेकी कृतिको छुपाकर अपनी बना डाली । यह चोरी नहीं तो और क्या है ? इसपर ब्राह्मणोंकी ओरसे कालिदास चोले,-"महाराज, अभी कल तो ये धनंजय उस मानतुगके पास विद्याभ्यास करते थे, जिसके पास विद्वत्ताकी गंध भी नहीं है । आज ये कहांसे विद्वान् हो गये, जो ग्रन्थ रचने लग गये । उस मानतुंगको ही बुलाके हमसे शास्त्रार्थ कराके देख लीजिये । इनके पाडिलकी परीक्षा माप हो जावेगी ।" गुरुदेवकी अवज्ञा धनंजयसे सुनी नहीं गई। वे कुपित होकर बोले-" कौन ऐसा विद्वान् हैं, जो गुरुजीके चरणोंमे विवाद कर सकता है । मैं देखू, तुममें कितना पाडित्य है ? पहले मुझसे शास्त्रार्थ कर लो, तव गुरुदेवका नाम लेना।" वस, इसके पश्चात् ही कालिदास और धनंजयका शास्त्रार्थ होने लगा । विविध विपयोंमें वादविवाद हुआ । धनजयके स्याद्वादमय वादसे अनेक वार निरुत्तर होकर कालिदास खिसिया गये और राजासे वही वात फिर वोले कि,-"मैं इनके गुरु मानतुगसे शास्त्रार्थ करूंगा।" यद्यपि महाराज भोज 'धनंजयका पक्ष प्रवल है, यह जान चुके थे, परन्तु कालिदासके
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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