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________________ ५५ उदार गुणों और चरितोंका बहुत कुछ परिचय आदिपुराणके देखनेसे मिल सकता है। इसीप्रकार और भी सैकड़ों और हजारों महात्मानोंका नामोल्लेख किया जा सकता है । जैनसाहित्यमें उदारचरित महात्मालोंकी कमी नहीं है । आज कल भी जो अनेक पर्वतोपर खुले मैदान में तथा गुफाओंमें जिनप्रतिमाएँ विराजमान है और दक्षिणादिदेशोंमें कहीं कहींपर जिनप्रतिमाओंसहित मानस्तंभादिक पाये जाते हैं, वे सब जैन पूर्वजोंकी उदार चित्तवृत्तिके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं । उदारचरित महात्माओंके आश्रित रहनेसे ही यह जैनधर्म अनेकबार विश्वव्यापी हो चुका है । अब भी यदि राष्ट्रधर्मका सेहरा किसी धर्मके सिर बंध सकता है तो वह यही धर्म है जो प्राणीमात्रका शुभचिन्तक है । ऐसे धर्मको पाकर भी हृदयमें इतनी संकीर्णता और स्वार्थपरताका होना, कि एक भाई तो पूजन कर सके और दूसरा भाई पूजन न करने पावे, जैनियोंके लिये बडी भारी लजाकी बात है। जिन जैनियोका, “वसुधैव कुटुम्बकम्,” यह खास सिद्धान्त था, क्या वे उसको यहातक भुला बैठे कि अपने सहधर्मियोमें भी उसका पालन और वर्ताव न करे। जातिभेद या वर्णभेदके कारण आपसमें ईर्षा द्वेष रखना, एक दूसरेको घृणाकी दृष्टिसे अवलोकन करना और अपने लौकिक कार्योंसंबंधी कपायको धार्मिक कार्योंमें निकालना, ये सब जैनियोंके आत्म-गौरवको नष्ट करनेवाले कार्य हैं । जैनियोंको इनसे बचना चाहिये और समझना चाहिये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण अपनी अपनी क्रियाओं (वृत्ति) के भेदकी अपेक्षा वर्णन किये गये हैं। वास्तवमे चारो ही वर्ण जैनधर्मको धारण करने एव जिनेंद्रदेवकी पूजा उपासना करनेके योग्य हैं और इस सम्बन्धसे जैनधर्मको पालन करते हुए सब आपसमे भाई भाईके समान हैं * । इसलिये, हृद. यकी सकीर्णताको त्यागकर धार्मिक कार्योंके अनुष्ठानमें सब जैनियोंको परस्पर - - १ समस्त भूमंडल अपना कुटुम्ब है। *"विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा प्रोक्ता क्रियाविशेषत । जैनधर्मे परा शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमा ॥" -सोमसेनाचार्य।
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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