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________________ प्रस्तावना अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनंतवीर्यादि अनंतशक्तियोंका आधार है-पिण्ड है । परन्तु अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियां आठ, उत्तर प्रकृतियां एकसौ अड़तालीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्य हैं। इस कर्म-मलके कारण जीवोंका असली स्वभाव आच्छादित है, उनकी वे शक्तियाँ अविकसित हैं और वे परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्याय धारण करते हुए नज़र आते हैं। अनेक अवस्थाओंको लिए हुए संसारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कर्म-मलका परिणाम है-उसीके भेदसे यह सब जीवजगत् भेदरूप है; और जीवकी इस अवस्थाको 'विभाव-परिणति' कहते हैं । जबतक किसी जीवकी यह विभावपरिणिति बनी रहती है तब तक वह 'संसारी' कहलाता है और तभी तक उसे संसारमें कर्मानुसार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दु.ख उठाना होता है। जब योग्य साधनोंके बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती हैआत्मामें कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहता-और उसका निज स्वभाव सर्वाङ्गरूपसे अथवा पूर्णतया विकसित हो जाता है, तब वह जीवात्मा संसार-परिभ्रमणसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाएँ हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त । इस प्रकार पर्याय दृष्टिसे जीवोंके 'संसारी' और 'सिद्ध' एसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं; अथवा अविकसित, अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण-विकसित ऐसे चार भागोंमें भी उन्हें बाँटा जा सकता है । और इस लिये जो अधिकाधिक विकसित हैं वे स्त्ररूपसे ही उनके पूज्य एवं श्राराध्य हैं जो अविकसित या अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका विकास सबके लिये इष्ट है।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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