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________________ १२. NNNNY स्वयम्भूस्तोत्र मोहचक्रको-मोहनीय कर्मके मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंचको-जीता था और उसे जीतकर वे सहान् उदयको प्राप्त हुए थे, आहन्त्यलक्ष्मीसे युक्त होकर देवों तथा असुरोंकी महती ( समवरण) सभामें सुशोभित हुए थे। उनके चक्रवर्ती राजा होनेपर राजचक्र, मुनि होनेपर दया-दीधिति-धर्मचक्र, पूज्य ( तीर्थ-प्रवर्तक ) होने पर देवचक्र प्राञ्जलि हुआ-हाथ जोड़े खड़ा रहा अथवा स्वाधीन बना-और ध्यानोन्मुख होनेपर कृतान्तचक्र-कर्मीका अवशिष्टसमूह-नाशको प्राप्त हुआ था। (१७) कुन्थु-जिन कुन्थ्वादि सकल प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हुए थे। उन्होंने पहले चक्रवर्ती राजा होकर पश्चात् धर्मचक्रका प्रवर्तन किया था, जिसका लक्ष्य लौकिकजनोंके ज्वर-जरा-मरणकी उपशान्ति और उन्हें आत्मविभूतिकी प्राप्ति कराना था। वे विषय-सौख्यसे परराङमुख कैसे हुए, परमदुश्वर बाह्यतपका आचरण उन्होंने किस लिये किया, कौनसे ध्यानोंको अपनाया और कौनसी सातिशय अग्निमें अपने (घातिया) काँकी चार प्रकृतियोंको भस्म करके वे शक्तिसम्पन्न हुए और सकल-वेद-विधिके प्रणेता बने, इन सब बातोंको इस स्तवनमें बतलाया गया है। साथ ही, यह भी बतलाया गया है कि लोकके जो पितामहादिक प्रसिद्ध हैं वे आपकी विद्या और विभूतिकी एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए हैं, और इसलिए आत्महितकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ सुधीजन (गणधरादिक) उन अद्वितीय स्तुत्यकी स्तुति करते हैं। (१८) अर-जिन चक्रवर्ती थे, मुमुक्षु होनेपर चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य उनके लिए जीर्ण तृणके समान हो गया और इसलिये उन्होंने निःसार समझकर उसे त्याग दिया। उनके रूप-सौन्दर्यको देखकर द्विनेत्र इन्द्र तृप्त न हो सका और इसलिए ( विक्रिया
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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