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स्वयम्भू-स्तात्र
नाथ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ ॥६॥ अते एव ते बुध-नुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम् । न्याय-विहितमवधार्य जिने
त्वयि सुप्रसन्न-मनसः स्थिता वयम्॥१०॥(१३०) । ___'हे नाथ ! आपने इस अखिल विश्वको-चराचर जगतकोसदा कर-तल-स्थित स्फटिक मणिके समान युगपत् जाना है, और आपके इस जानने में बाह्य करण-चक्षुरादिक- और अन्तःकरणमन-ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा ! उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते !
हैं । इसीसे हे बुधजन-स्तुत-अरिष्टनेमि जिन ! आपके न्याय विहित । और अद्भुत उदय-सहित-समवसरणादि-विभूति के प्रादुर्भावको लिये - हुए-चरित-माहात्म्यको भले प्रकार अवधारण करके हम बड़े । प्रसन्न-चित्तसे आपमें स्थित हुए हैं आपके भक्त बने हैं और हमने आपका आश्रय लिया है।' -
२३ श्रीपार्श्व-जिन-स्तवन
-*०::०*----- तमाल-नीलैः सधनुस्तडिद्गुणः प्रकीर्ण-भीमाऽशनि-वायु-वृष्टिभिः ।