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स्वयम्भू-स्तोत्र .
| द्योतक है । जो शासन-फलके लिये आतुर रहते हैं वे ऐश्वर्यशाली होते ।
हुए भी क्षुद्र संसारी जीव होते हैं । इसीसे वे प्रायः दम्भके शिकार होते.. हैं और उनसे सच्चा शासन बन नहीं सकता।'
काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो नाऽभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नाऽसमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो
धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥५॥ _ 'आप प्रत्यक्षज्ञानी मुनिके मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ प्रवृत्त करनेकी इच्छासे नहीं हुई; (तब क्या असमीक्ष्यकारित्त्वके रूपमें हुईं ?) यथावत् वस्तुस्वरूपको न जानकर असमीक्ष्यकारित्त्वके रूपमें ! भी वे नहीं हुई। इस तरह हे धीर-धर्मजिन ! अापका ईहित-चरितअचिन्त्य है-उसमें वे सब प्रवृत्तियाँ बिना आपकी इच्छा और असमीक्ष्यकारिताके तीर्थकर-नामकर्मोदय तथा भव्यजीवोंके अदृष्ट(भाग्य)-विशेषके वशसे होती है।
मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः। . तेन नाथ ! परमाऽसि देवता
श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥५॥ (७५) 'हे नाथ ! चूँकि आप मानुषी प्रकृतिको-मानव स्वभावकोअतिक्रान्त कर गये हैं और देवताओंमें भी देवता हैं-पूज्य र हैं-इस लिये आप परम-उत्कृष्ट देवता हैं-पूज्यतम हैं । अतः हे | धर्मजिन ! आप हमारे कल्याणके लिये प्रसन्न होवें, हम प्रसन्नता