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. समन्तभद्र-भारती
बाह्येतरोपाधि-समग्रतेयं __कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। .
नैवाऽन्यथा मोक्ष-विधिश्च पुंसां
तेनाऽभिवन्धस्त्वमृषिर्बुधानाम् ॥॥ (६०) । कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर-सहकारी और उपादानदोनों कारणोंकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतमें द्रव्यगत
स्वभाव है-जीवादि-पदार्थगत अर्थ-क्रिया-कारित्वस्वरूप है। अन्यथा-! । इस समग्रता अर्थात् द्रव्यगत स्वभावके बिना अन्य प्रकारसे-पुरुषोंके । : मोक्षकी विधि भी नहीं बनती-घटादिकका विधान ही नहीं किन्तु . मुक्तिका विधान भी नहीं बन सकता। इसीसे परमर्द्धि-सम्पन्न ऋषि-।
वासु पूज्य ! आप बुधजनोंके अभिबन्ध हैं-गणधरादि विबुधजनोंके , द्वारा पूजा-वन्दना किये जानेके योग्य हैं।'
श्रीविमल-जिन-स्तवन
-+++ +++ य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्व-पर-प्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेताः स्व-परोपकारिणः ॥१॥
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