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________________ स्वयम्भू-स्तोत्र . ततोऽभिवन्द्यं जगदीश्वराणां ममाऽपि साधोस्तथ पादपमम् ॥ ५ ॥ (४५) । ___ 'हे सुविधि-जिन ! आपका यह 'स्यात्' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणके आशयको लिये हुए है-विवक्षित और अविवक्षित दोनों ही धर्म इसके वाच्य हैं-अभिधेय हैं । आपसे-आपके , अनेकान्त-मतसे-द्वेष रखने वाले सर्वथा एकान्त-वादियोंके लिये यह वाक्य अपथ्यरूपसे अनिष्ट है-उनकी सैद्धान्तिक प्रकृतिके र विरुद्ध है; क्योंकि दोनों धर्मोंका एकान्त स्वीकार करनेसे उनके यहाँ विरोध ! आता है। चूँ कि आपने ऐसे सातिशय तत्त्वका प्रणयन किया है इसलिये हे साधो ! आपके चरण कमल जगदीश्वरों-इन्द्र-चक्रवर्त्यादिकोंके द्वारा वन्दनीय हैं, और मेरे भी द्वारा वन्दनीय हैं।' श्रीशीतल-जिन-स्तवन न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघ ! वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम् ॥१॥ 'हे अनघ !-निरवद्य-निर्दोष श्रीशीतल-जिन !-आप प्रत्यक्ष'ऽनघ-वाक्य-रश्मयः' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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