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________________ स्वयम्भू-स्तोत्र, श्रीशम्भव-जिन-स्तवन न्वं शम्भवः । सम्भव-तर्ष-रोगैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके । आसीरिहाऽऽकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ॥१॥ ___(अन्वर्थ-संज्ञाके धारक १) हे शम्भव-जिन ! सांसारिक तृष्णा रोगोंसे प्र-पीडित जनसमूहके लिये आप इस लोकमें उसी प्रकार आकस्मिक वैद्य हुए हैं जिस प्रकार कि अनाथोंके द्रव्यादि-सहाय-विहीनोके रोगोंकी शान्तिके लिये कोई चतुर वैद्य में अचानक आ जाता है और अपने लिये चिकित्साके फलस्वरूप धनादिकी कोई अपेक्षा न रखकर उन गरीबोकी चिकित्सा करके उन्हें नीरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है।' अनित्यमत्राणमहक्रियाभिः प्रसक्त-मिथ्याऽध्यवसाय-दोषम् । इदं जगजन्म-जराऽन्तकात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वम् ।।२।। संभवः' इति पाठान्तरम् । + शम्भव इत्यन्वर्थेयं संज्ञा । शं सुखं भवत्यस्माद्भव्यानां इति शम्भवः! (जिनसे भव्योंको सुख होवे वे 'शम्भव')।' -प्रभाचन्द्राचार्य ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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