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स्वयम्भू-स्तोत्र
शक्तिकी सम्पत्ति के साथ उसी प्रकार प्रादूर्भूत हुए जिस प्रकार कि मेघोंके आवरणसे मुक्त हुआ सूर्य, कमलोंके अभ्युदय के लिये - उनके अन्तः अन्धकारको दूर कर उन्हें विकसित करनेके लिये - अपनी प्रकाशमय समर्थ शक्ति - सम्पत्ति के साथ प्रकट होता है ।'
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येन प्रणीतं पृथु धर्म-तीर्थं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । गाङ्ग हृदं चन्दन- पङ्क-शीतं गज-प्रवेका इव धर्म - तप्ताः ॥ ४ ॥
' ( उक्त प्रकार से प्रादुर्भूत होकर ) जिन्होंने उस धर्म तीर्थकासम्यग्दर्शनादि -रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि- देशलक्षण और सामायिकादिपंच प्रकार चारित्र धर्मके प्रतिपादक श्रागमतीर्थका - प्रणयन कियाप्रकाशन किया— जो महान है - सम्पूर्ण पदार्थोंके स्वरूप- प्रतिपादनकी दृष्टिसे विशाल है, ज्येष्ठ है- -समस्त धर्मतीथों में प्रधान है - और जिसका आश्रय पाकर भव्यजन ( संसार - परिभ्रमण - जन्य ) दुःखसन्तापपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं - उससे छूट जाते हैंजिस प्रकार कि ग्रीष्मकालीन सूर्यके आतापसे सन्तप्त हुए बड़े बड़े हाथी चन्दनलेपके समान शीतल गङ्गाद्रहको प्राप्त होकर अथवा गंगाके अगाध जल में प्रवेश करके सूर्यके प्रतापजन्य दुःखको मिटा डालते हैं ।'
स ब्रह्मनिष्ठः सम - मित्र - शत्रु
विद्या - विनिर्वान्त-कषाय-दोषः ।