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بانو یو شمیر مهدی محمية في ه م یه
समन्तभद्र-परिचय कराते थे, और इससे उनके भाषणादिकका दूसरोंपर अच्छा ही प्रभाव पड़ता था-उनके पास उसके विरोधका कुछ भी कारण नहीं रहता था। यही वजह थी और यही सब वह मोहन-मंत्र था जिससे समन्तभद्र को दूसरे सम्प्रदायोंकी ओरसे किसी खास विरोधका सामना प्रायः नहीं करना पड़ा और उन्हें अपने उदेश्यमें भारी सफलताकी प्राप्ति हुई।
समन्तभद्रकी इस सफलताका एक समुच्चय उल्लेख श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं०५४ (६७) में, जिसे 'मल्लिषणप्रशस्ति' भी कहते हैं. और जो शक संवत् १०५० में उत्कीर्ण हुआ है उसमें निम्न प्रकारसे पाया जाता है और उससे यह मालूम होता है कि 'मुनिसंघके नायक आचार्य समन्तभद्रके द्वारा सर्वहितकारी जैनमार्ग इस कलिकालमें पुनः सब ओरसे भद्ररूप हुआ हैउसका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त होनेसे वह सबका हितकरनेवाला और सबका प्रेमपात्र बना है :
बन्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद-स्वमन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्र-गणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्र मभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ इस पद्यक पूर्वाधमें समन्तभद्रके जीवनकी कुछ खास घटनाओंका उल्लेख है और वे हैं-१ बोर तपस्या करते समय शरीरमें 'भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति. २ उस व्याधिकी बडी बुद्धिमत्ताके साथ शान्ति, ३ पद्मावती नामकी दिव्यशक्तिके द्वारा समन्तभद्रको उदात्त (ॐ चे) पदकी प्राप्ति और ४ अपने मन्त्ररूप वचनबलसे अथवा योग-सामर्थ्यसे चन्द्रप्रभ-बिम्बकी आकृष्टि ।