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________________ अध्यात्म-रहस्य ४१ इसीसे सम्यग्दृष्टि ऐसे वास्तविक सुखमें अनास्था रखता हुआ उसकी आकांक्षा नहीं करता, जो कर्माधीन है, अन्तसहित है, उदयकालमें दुखसे अन्तरित है और - पापका चीज है । उक्त अविद्याको यहाँ विद्यासे—यथार्थ वस्तुस्थितिके परिज्ञानरूप सम्यग्ज्ञानसे अथवा उस उपेक्षा नामकी विद्यासे जिसका पद्य ४२ में उल्लेख है - छेदन करनेकी प्रेरणा की गई है । निश्चयसे आत्मा सच्चिदानन्दरूप है निश्चयात् सच्चिदानन्दाद्वयरूपं तदस्म्यहम् । ब्रह्म ेति सतताभ्यासालीये स्वात्मनि निर्मले ॥३० 'निश्चयनयसे जो सत् चित और आनन्द के साथ अद्वैतरूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकारके निरन्तर अभ्यास से ही मैं अपने निर्मल आत्मा में लीन होता हू ।' व्याख्या - यहाँ अपने शुद्ध-स्वात्मामे लीन होनेकी पद्धतिका कुछ निर्देश है और वह इतना ही है कि निरन्तर इस प्रकारके अभ्यासको बढाया जावे कि निश्चयनयकी दृष्टिसे जो सत्, चित् और आनन्द से अभिन्न रूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ- मेरे सच्चिदानन्दरूपसे कथित ब्रह्मका रूप अलग नहीं है और न इस रूपसे भिन्न ब्रह्म नामकी कोई अलग वस्तु * समीचीनधर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) १२ ।
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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