SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ - 65 सन्मति-विद्या प्रकाशमाला व्याख्या-यहाँ उपयोगके स्वरूपका प्रतिपादन करते हुए अति(कर्ण-विषय) की दृष्टिसे उसके दो भेद किये गये है-एक शब्दगत, जो शब्दको अपना विषय करे और दूमरा अर्थगत, जो पदार्थको अपना विषय करे । शब्दगतको 'दर्शनोपयोग' और अर्थगतको 'ज्ञानोपयोग' कहते हैं और जीवात्माको दोनों उपयोगरूप प्रतिपादित किया गया है। आत्मशुद्धिका मार्ग अमुह्यन्तमरज्यन्तमद्विपन्तं च यः स्वयम् । शुद्धे निधत्ते स्वे शुद्धमुपयोगं स शुद्धयति ॥२५॥ 'जो (ध्यानी) पुरुष स्वयं अपने शुद्ध-आत्मामें राग, द्वेष तथा मोहसे रहित शुद्ध उपयोगको धारण करता है वह शुद्धिको प्राप्त होता है। ____व्याख्या-यहाँ आत्माकी शुद्धिके प्रकारका निर्देश है और वह यह है कि, आत्माके शुद्ध स्वरूपका चिन्तन करके उसमें अपने शुद्ध उपयोगको लगानेसे प्रात्माकी शुद्धि होती है । शुद्ध उपयोग वह कहलाता है जो राग, द्वेष और मोहसे रहित होता है। राग द्वेप और मोह, ये अशुद्धिके बीज हैं; इनसे उपयोग मलिन होता है और ऐसे मलिन उपयोगको धारण करनेसे आत्माकी शुद्धि नहीं वनतो। अतः आत्माको यदि शुद्ध करना है तो अपने उस उपयोगसे, जिसे शुद्धात्माके प्रति लगाना है, राग-द्वेष
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy