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अध्यात्म - रहस्य
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श्रात्माके पृथक व्यक्तित्वका सूचक हैं | द्रव्यदृष्टिसे अथवा गुणोंकी अपेक्षा आत्माओं के परस्पर समान होते हुए भी व्यक्तित्वकी या भिन्नप्रदेशोंकी दृष्टिसे सब आत्माएँ अलग अलग हैं, सबकी साधना और विकास क्रम भी अलगअलग हैं, और इसलिये विकासमार्ग में आत्माके पृथक् व्यक्तित्वको सबसे पहले ध्यानमें लेने की जरूरत है। आत्मा-का यह पृथग्व्यक्तित्व सभी संज्ञी ( समनस्क) जीवोंकोचाहे वे मूढसे मूढ अथवा पशु ही क्यों न हों- 'अहं' शब्दके वाच्यरूपमें भासमान होता है। अर्थात् जो यह अनुभव करता है कि मैं सुखी हूँ, मैं खाता हूँ, में पीता हूँ, मैं सोता हूँ, मैं जागता हूँ, मैं चलता हूँ, मैं बैठता हूँ, मैं सर्दी-गर्मीभूख-प्यास अथवा वध - बन्धनादिसे पीड़ित हॅू इत्यादि, वह स्वात्मा है और स्वात्मा मुख्यतः हृदय- कमलके मध्यमें, जिसे कणिका कहते हैं, भासमान रहता है। कमलकी कर्णिकामैं जिस प्रकार अक्ष ( कमल-बीज ) का वास है उसी प्रकार हृदय - कमलके मध्य में अक्ष (आत्मा) का वास है, जिसे आत्मज्ञानी जन स्व-संवेदन अथवा स्वानुभूतिसे लक्षित किया करते हैं। शुद्धात्मा - परमात्माका अनुसंधान भी योगिजनोंके द्वारा इसी हृदय कमलकी कर्णिकाके मध्य में किया जाता है; जैसा कि 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है:--
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