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________________ अध्यात्म-रहस्य 'निसके शुद्धस्वात्मामें-निजात्माकी राग-द्वेष-मोहसे रहित अवस्थामें-सद्गुरुके प्रसादसे श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि ये चारों (शक्तियाँ) क्रमशः सिद्ध हो जाती हैं वह योगी योगका पारगामी होता है।' व्याख्या-यहाँ योगके अभ्यासीको योगका पारगामी (पूर्ण योगी) होनेके लिए जिन चार शक्तियों श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टिके क्रमसे सिद्ध होनेकी जरूरत है उनका क्या स्वरूप अथवा लक्षण है उसे ग्रंथकारने स्वयं आगे बतलाया है। साथ ही स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और सद्गुरुका भी अभीष्ट स्वरूप दिया है। अत: उन सबकी यहाँ व्याख्या करनेकी ज़रूरत नहीं है, केवल इतना ही बतलाना पर्याप्त होगा कि शुद्धस्वात्माका अभिप्राय यहाँ द्रव्यकर्म, भावक्रम और नोकर्मरूप मलके सर्वथा अभाव होनेका नहीं है-सारे कर्ममलके सर्वथा अभाव हो जाने की अवस्थामें तो फिर किसी योग-साधना अथवा सिद्धि-प्राप्ति की जरूरत ही नहीं रहती-, किन्तु अपने आत्माकी उस समय-सम्बन्धी शुद्धावस्थासे अभिप्राय है जिस समय वह राग-द्वेप और मोहमें प्रवृत्त न होकर दर्शन, ज्ञान और साम्य भावक रूपमें परिणत होता है। उस शुद्धावस्थाको कुछ काल तक स्थिर रखनेका अभ्यास बढ़ाते हुए ही उक्त श्रुति आदिकी सिद्धिका प्रयत्ल किया जाता है। स्वात्माकी
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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