SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना वाचक है। यहाँ आत्माका 'स्व' विशेषण अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातका संघोतक है कि प्रत्येक संसारी बीवका आत्मा अन्य जीवोंके आत्माओंसे अपना पृथक् व्यक्तित्व और अस्तित्व रखता है, वह किसी एक ही (सर्वथा अद्वैत) अखण्ड आत्माका अंशभूत नहीं है और इसलिये ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तियोंने संसारी जीवोंके पृथक अस्तित्व और व्यक्तित्वको न मानकर उन्हें जिस सर्वथा नित्य, शुद्ध, एक, निगुण और सर्वव्यापक ब्रमका अंश माना है वह ब्रह्म भी यहाँ 'परब्रम' पदके द्वारा अभिप्रेत नहीं है । वैसे किसी ब्रह्मका अस्तित्व तात्विकी जैनदृष्टिसे बनता ही नहीं। और इसलिये यहाँ परब्रह्म पदका अभिप्राय उस पूर्णतः विकासको प्राप्त मुक्तात्माका है जो अनादिअविद्याके वश संलग्न हुई द्रव्य-भावरूप कर्मोपाधि और वजन्य विमाव-परिणतिरूप अशुद्धिको दूर करता हुआ अपनी स्वाभाविकी परमविशुद्धि एवं निर्मलताको प्राप्त होता है और इस तरह प्राप्त अथवा प्राविभूत हुई शुद्धावस्थाको विकारका कोई कारण न रहनेसे सदा अक्षुण्ण बनाये रखता है। __ ऐसे ही परब्रमके ध्यानसे, जो अपने आत्म-प्रदेशोंसे सर्वत्र व्यापक नहीं होता, 'सोऽहं' इस सूक्ष्म शब्दब्रह्मके द्वारा मनको संस्कारित करनेका ग्रन्थमें उल्लेख है (४४)। 'सोऽहं' पदमें 'स' शब्द उसी परब्रमका वाचक हैन कि
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy