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________________ अध्यात्म-रहस्य व्याख्या-यहाँ ग्रन्थके अन्तमें मंगलरूपसे उस परमब्रह्मका-परमविशुद्धिको प्राप्त सच्चिदानन्दमय-परमात्माकास्मरण किया गया है जो आनन्दके साथ अपने चैतन्यप्रकाशसे सदा ही प्रकाशमान है-कभी प्रकाशकी मन्दता या विकृतिको प्राप्त नहीं होता-,जिसको योगी जन आत्मचिन्तनके लिये सदा अपने ध्यानका विषय बनाते हैं, जिससे विश्व आत्म-विकासकी प्रेरणा प्राप्त करता है, जिसके लिये इन्द्रके समूह तक नतमस्तक होते हैं, जिसकी अनेकता एवं विविध-रूपतासे जगतकी विचित्रता सुघटित होती है-अन्यथा जगतसे जिसका (चिदात्माका) सम्बन्ध अलग होने पर जगतमें फिर कोई खास विचित्रता या विशेषता नहीं रहती-, जिसकी हार्दिक श्रद्धा आत्म-विकासका मार्ग है और जिसमें लीन होना मुक्ति है। साथ ही, यह भावना भी की है कि ऐसा परमब्रह्मरूप सर्वज्ञस्यों मेरे हृदयमें सदा स्फुरित रहे-उसका प्रकाश मुझे वरावर मिलता रहे। अनगारधर्मामृतके ११वें पद्यकी स्वोपज्ञटीकामे 'ब्रह्मवद्वान्त्वहर्दिवम्' वाक्यका अर्थ देते हुए ग्रंथकारने 'ब्रह्मवत्' पदका अर्थ 'सर्वज्ञतुल्यम्' दिया है, और इस लिए यहाँ भी 'ब्रह्म शब्दको सर्वज्ञका वाचक समझना चाहिये-केवलज्ञानमय सर्वज्ञ ही परमप्रकाशरूप परमब्रह्म है।
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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