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________________ अध्यात्म - रहस्य उपादेय । हेय इसलिये नहीं कि मेरे श्रात्मस्वरूपको कोई भी नपदार्थ अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं, और उपादेय इसलिये नहीं कि कोई भी परपदार्थ मेरे स्वरूपमें किसी प्रकारकी वृद्धि करनेमें समर्थ नहीं है । मुझे तो स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि चाहिये, चाहे वह यत्नसे मिलो या बिना यत्नके ही । यदि बिना यत्नके ही मिल जाय तो बहुत अच्छी बात है, अन्यथा यत्न करना ही होगा। उस यत्नमें उक्त नयदृष्टिसे किसीको हेय या उपादेय मानकर राग-द्वेष करने की मुझे जरूरत नहीं है । इस पद्य तथा इससे पूर्ववर्ती पद्यमें श्रीपूज्यपादाचार्य के निम्न पद्यकी दृष्टि अथवा भावको ही कुछ दूसरे शब्दोंमें, नयोंकी विवक्षा एवं बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयकी स्पष्टताको साथमें लेते हुए, व्यक्त किया गया है त्यागाऽऽदाने वर्हिमूढ. करोत्यध्यात्ममात्मवित् । नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन ॥ (स०त० ४७) इसमें बतलाया है कि 'देहादिक में आत्मबुद्धि रखनेवाला मूढ जन बाह्य वस्तुओं में ही त्याग और ग्रहणकी प्रवृत्ति करता है— उसके त्यागका कारण प्रायः द्वेषका उदय तथा अभिलापाका अभाव और ग्रहणका कारण प्रायः रागका उदय और अभिलाषाकी उत्पत्ति होता है; किन्तु श्रात्मज्ञानी अपने आत्मस्वरूपमें ही त्याग - ग्रहणकी प्रवृत्ति करता है
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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