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________________ अध्यात्म-रहस्य ६३ 'सस्कारांके उद्बोधका निरोध करनेवाले विशदज्ञानकी सन्ततिके जाग्रत होनेपर यदि (किसी समय ) स्मरणादिविषयक मेरी कोई कल्पना जाग भी उठे तो वह क्या स्मरण करेगी ? कुछ भी स्मरण न कर सकेगी।' व्याख्या - पुरातन - संस्कारोंके जाग उठने से जो संकल्पविकल्प चित्तमें उत्पन्न हुआ करते हैं उनको रोकनेवाले निर्मल ज्ञानकी सन्ततिके अन्तःकरण में जागृत होनेपर यदि किसी बाह्य वस्तुके प्रति स्मरणकी कोई कल्पना भी किसी समय जाग उठे तो क्या वह कल्पनास्थित स्मृति किसी वस्तुका स्मरण करेगी ? नहीं करेगी; किन्तु अन्तरंग में शुद्ध उपयोगकी धारा वरावर अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित हारी रहेगी । स्वानुभूतिकी वृद्धिके लिये भावना निश्चित्यानुभवन् हेयं स्वानुभूत्यै बहिस्त्यजन् । श्रादेयं चाददानः स्यां भोक्तृ ' रत्नत्रयात्मकः ॥ ५४ 'स्वानुभूतिकी उत्तरोत्तर विशेषप्राप्ति के लिये मैं निश्चित रूपसे अपने आपको अनुभव करता हुआ हेयको, जो मेरे स्वरूपसे वाह्य है, छोड़ कर आयको, जो मेरा स्वरूप है, ग्रहण कर रत्नत्रयात्मक निजभावका भोक्ता बनू ( ऐसी मेरी भावना है) ।' १ निजचैतन्यभावस्य भोक्ता अहं भवेयम् ।
SR No.010649
Book TitleAdhyatma Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1957
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size4 MB
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