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________________ तस्कर प्रभव का हृदय-परिवर्तन | ६६ नही किया कि कोई व्यक्ति अवस्वापिनी विद्या से अप्रभावित रह कर जाग तो नही रहा है। निश्चित होकर प्रभव और उसके साथी अपने कार्य मे लग गये। एक अन्य कला का जब उसने प्रयोग किया तो समस्त ताले स्वतः ही खुल पड़े। कोई बाधा नही ! कोई विरोध नही ।। चोर-दल बेधडक सभी कक्षो से सम्पत्ति बटोरने लगा । प्रभव के लिए यह बडा उत्तम अवसर था। उसने सोचा था कि वैसे हो श्रेष्ठि ऋषभदत्त के यहाँ विपुल धन है और आज तो आठ अन्य श्रेष्ठियो के यहाँ से प्रचुर सम्पत्ति दहेज आदि के रूप मे भी यहाँ आयी हुई है। ऐसा अवसर वर्षों मे कभी-कभी ही हाथ आता है। यही सोचकर प्रभव ने ऋषभदत्त के यहाँ चोरी करने की योजना बनाई थी। उसने जितने धन की कल्पना की थी, उससे कई गुना अधिक धन पाकर प्रभव की आखे तो खुली की खुली रह गयी । उसके हृदय मे प्रसन्नता और अग-अग मे अद्भुत स्फूर्ति का संचार हो गया था। देखते ही देखते इस प्रासाद का सारा धन इन लोगो ने एकत्रित कर लिया और उन्हे सुगमतापूर्वक ले जाने के लिए गट्ठरो मे बाँध लिया। प्रभव का दल जब प्रासाद के आँगन को पार कर रहा था तभी एकाएक उसके साथियो के पैर आगे बढ़ने से रुक गये । आँगन मे प्रभव का सारा दल स्तम्भित अवस्था मे खड़ा था। प्रमव तो विस्मय मे डूब रहा था कि जम्बूकुमार पर मेरी अवस्वापिनी विद्या का प्रभाव क्यो नही हुआ। अवश्य ही यह असाधारण व्यक्ति है और यह भी विद्याओ का ज्ञाता है। अन्यथा यह जागता कैसे रह गया। कुछ क्षण तो प्रभव अवाक्-सा ही रह
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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