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________________ गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ४५ लीजिए न ! इस क्षुद्र से पादपीठ मे क्या धरा है। इसे देते हुए तो स्वयं मुझे ही सकोच का अनुभव होता है। किन्तु श्रेण्ठिपुत्र __ अपनी उसी याचना पर दृढ यहा । अन्ततः गणिका ने वह पादपीठ ही उसे देकर विदा किया। वास्तव मे वह श्रेण्ठिपुत्र मूल्यवान धातुओ और हीरे जवाहरात का व्यवसायी था। इन वस्तुओ का वह कुशल पारखी भी था। उसने उस पादपीठ को प्रथम दृष्टि मे ही मूल्याकित कर लिया था कि वह पचरत्नो से जटित है और गणिका जिसे साधारण वस्तु मान रही है वह तो ससार मे एक अनुपलब्ध निधि है । ये रत्न दुर्लभ है । श्रेष्ठिपुत्र ने उन रत्नो का मनमाना मूल्य प्राप्त कर लिया और आपने व्यवसाय को ही नही अपनी प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य को भी खूब उन्नत कर लिया। यह प्रसग सुनाकर जम्बूकुमार ने इसके पीछे छिपे अपने मूल मन्तव्य की भी व्याख्या की । उन्होने कहा कि हे तात ! जिस प्रकार उस पारखी श्रेष्ठिपुत्र ने उस दुर्लभ वस्तु को गणिका से प्राप्त कर अपने शेष जीवन के लिए सुख और उन्नति का प्रबन्ध । कर लिया था, उसी प्रकार. मैने भी आर्य सुधर्मास्वामी से जीवन और जगत के मर्म को समझ लिया है और अब मैं अपने जीवन को परम लक्ष्य की प्राप्ति मे लगा देने के लिए सकल्पबद्ध हैं। मैं अक्षय आनन्द और परमपद प्राप्त करने की साध को पूर्ण करना चाहता हूँ। इसके लिए साधना आवश्यक है। साधना के लिए अनिवार्य आवश्यकता है विरक्ति की । अत. कृपापर्वक आप Sorr
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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