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________________ ४४ | मुक्ति का अमर राही: जम्बूकुमार " अस्वीकार नही किया । कोई मूल्यवान कगन माग लेता तो कोई रत्न-जटित स्वर्णहार । एक दिन ऐसे ही अवसर पर जब एक श्रेोष्ठिपुत्र से गणिका ने आग्रह किया कि वह अपने साथ उसका कोई स्मृति चिह्न ले जाय और उससे उसकी रुचि का आभूषण बताने को कहा, तो श्रेण्ठिपुत्र मौन हो गया। गणिका ने पुन आग्रह किया कि स्वामिन | सकोच मत कीजिए, · मैं आपकी अभिलापा पूर्ण करने में कोई कृपणता नही करूँगी । आप बेहिचक कहिए । अबकी बार श्रेण्ठिपुत्र ने कहा कि रानी, आपका रत्न-जटित यह स्वर्ण आसन कितना मनोहारी है ! इसका मूल्य तो मैं ऑक ही नही सकता । मैं आपसे इसकी याचना नहीं करूंगा। मुझं तो इस आसन के समीप रखे उस 'पादपीठ' की कामना है। कृपाकर वही मुझे दे दीजिए-बडा आभारी रहूंगा। वैसे आपसे कोई प्रतिदान स्वीकार करना हमे शोभा नहीं देता, किन्तु आपके सुकोमल मन का अनुरोध भी टाला कैसे जा सकता है। अत जब आप कुछ देना ही चाहती है, तो मैं उस पादपीठ को ले लूंगा जिस पर आपके सुकोमल चरण विश्राम किया करते हैं। आपके चरणो का निरन्तर स्पर्श करते रहने वाला यह पादपीठ मेरे लिए श्रेष्ठ स्मारक रहेगा, आपके चचल चरणो की नृत्य-कला का ही तो पुजारी हूँ मैं । गणिका समझ नहीं पा रही थी कि इस श्रेण्ठिपुत्र ने अन्य कोई मूल्यवान आभूपण क्यो नहीं माँगा और इस तुच्छ सी वस्तु का आग्रह क्यो कर रहा है । वह चाहती थी की इसे भी अन्य रसिको की भांति ही कोई उत्तम वस्तु भेंट की जाय । अत. उसने कहा कि आप कोई अन्य बहुमूल्य वस्तु
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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