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________________ ३० मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार स्वामी के प्रवचन से उपलब्ध होने लगे। सब कुछ स्पष्ट होता जा रहा था, एक मार्ग उन्हे आभासित होने लगा, जो उनके लिए अनुसरण के योग्य था। उन्हे अपने लक्ष्य की स्पष्टता भी अनुभव होने लगी और साधनो की प्रतीति भी। आर्य सुधर्मास्वामी के कथन से परिषद में यह स्पष्ट होता जा रहा था कि आज का मनुष्य भौतिक एषणाओ के पीछे अनवरत रूप से दौड रहा है। ये अभिलाषाएँ पूर्ण होकर भी न सन्तोप देती है और न वे समाप्त होती है । एक अभिलाषा के पूर्ण होते न होते ही अन्य अनेक अभिलाषाएँ जन्म ले लेती हैं । यह मृग-मरीचिका तृष्णा को ही अधिकाधिक तीव्र करती है-तृप्ति नही देती और मनुष्य का सारा जीवन ही तीन असन्तोष का पर्याय बन जाता है। दुख, निराशा, पीडा, सकट, चिन्ता आदि ही मनुष्य के जीवन मे अडिग आसन जमा लेती है। इस परिस्थिति का मूलभूत कारण 'आध्यात्मिकता का अभाव' है-यह भी स्पष्ट होने लगा। मनुष्य आज विस्मरण कर गया है कि आत्मा के इस भवसागर मे अवतरण का उद्देश्य क्या है ? उसके कर्तव्याकर्तव्य क्या है ? आत्मा को यह मानवयोनि जो मिली हैउसके पीछे छिपी हुई भावना क्या है ? और वह लक्ष्य-भ्रष्ट होकर ससार-सागर की विषय-वासना की तरगो मे इधर से उधर भटकता जा रहा है। अज्ञान के प्रभाव से वह त्याज्य को ही ग्राह्य मान बैठा है और पीड़ाजनक पदार्थों को सुख के साधन । अयथार्थ और क्षणिक सुखो के बन्धनो मे ही वह अपनी चिरसुखाकाक्षी आत्मा को बाँधता चला जा रहा है। इसके परिणाम शुभ
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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