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________________ सुबुद्धि और राम-राम मित्र की कथा | १८३ दण्ड की आज्ञा को भी निरस्त करवा दिया और तब एक दिन राजा के समक्ष उसने सुबुद्धि को उपस्थित कर दिया। राजा अपने कुशल प्रधान अमात्य को देखकर बडा प्रसन्न हुआ और उसे गले लगा लिया । वह सेठ के प्रति भी आभार व्यक्त करने लगा कि सुबुद्धि को छिपाकर उसने देश के प्रति बडा भारी उपकार किया है | उसने प्रधान अमात्य की तो रक्षा की ही साथ ही राजा को भी एक पाप से बचा लिया है, नही तो वह तो सुबुद्धि को शूली पर चढ़ा देने को उद्यत हो ही गया था । राजा ने सुबुद्धि को उसका छिना हुआ पूर्व गौरव लौटा दिया। अब सुबुद्धि पुन. प्रधान अमात्य बन गया और पूर्व की अपेक्षा अनेक गुनी प्रतिष्ठा उसे प्राप्त हो गयी थी। राजा भी उस सेठ के प्रति उपकृत था । उसने उसे विपुल धनराशि के साथ पुरस्कृत और सम्मानित किया । अब प्रधान अमात्य का मित्रता सम्बन्धी दृष्टिकोण परिवर्तित हो गया था । सच्ची मैत्री का लक्षण उसने अपने इस रामराम मित्र, सेठ मे पाया था । अतः अब वह उसका सच्चा और अन्तरंग मित्र हो गया । नित्यमित्र अपनी धर्मपत्नी और अन्य पर्वमित्रो के प्रति उसके मन मे स्नेह का भाव शेष नही रह गया था । सुबुद्धि की कथा समाप्त करते हुए जम्बूकुमार ने रूपश्री को सम्बोधित करते हुए कहा कि क्या तुम अब भी सासारिक सबधो के यथार्थ स्वरूप को नही समझ पाई हो ? मैं स्वार्थाधारित इन जगत व्यवहारो को अच्छी तरह पहचान गया हूँ और इनके पाश
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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