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________________ १८२ / मुक्ति का अमर राही जम्बूकुमार परित्र करते रहिये । मैं तो आपकी सेवा करके धन्य हो जाऊँगा। अहोभाग्य है कि देश की एक धरोहर की रक्षा करने का अवसर मुझे मिला है। यहाँ आपको न कोई कष्ट होगा, न भय । आप यहाँ निश्चिन्त रहिये। सुबुद्धि को अपने इस राम-राम मित्र की सदाशयता पर सुखद विस्मय हो रहा था। जिनके साथ उसने जीवन व्यतीत किया, जिनके हित मे वह निरन्तर व्यस्त रहा-उनमे से किसी एक ने भी उसकी सहायता नही की। और यह सेठ उस पर सर्वस्व न्योछावर कर रहा है। इसके साथ उसका मात्र राम-राम (नमस्कार) का ही तो सम्पर्क रहा है । मुझसे इसकी न तो कोई स्वार्थपूर्ति अब से पूर्व हुई है और न ही इसे इसकी अव कोई आशा है। यही नहीं, अपितु इसने तो अपने लिए एक आपदा खडी कर ली है। सुबुद्धि ने अपने इस राम-राम मित्र के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त किया और छिप कर उसके यहाँ रहने लगा। यह सहायता भी सेठ ने स्वेच्छा से की थी। इसके लिए सुबुद्धि को आग्रह नहीं करना पड़ा। स्वार्थहीनता और मानवीय दृष्टिकोण के कारण यह मित्र सुबुद्धि के लिए आदर और श्रद्धा का पात्र हो गया था। ___ कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत हो गये । राजा को सुबुद्धि का कुछ पता न चला । उसकी खोज भी बन्द हो गयी और राजा का क्रोध भी ठण्डा हो गया। तव वडी चतुराई के साथ इस सेठ ने राजा के सामने मारी स्थिति को स्पष्ट की और सिद्ध हो गया कि सुबुद्धि निष्कलक है, निरपराध है। उसने राजा द्वारा उसके .
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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