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________________ १६६ / मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार को श्रेयस्कर मानकर-उसे स्वीकार कर रहा हूं। कनकश्री ! सुखो की लिप्सा मनुष्य के लिए घातक शत्रु होती है। इसी लिप्सा के वशीभूत होकर मनुष्य अनेक अनर्थ करता रहता है, आत्मा की अनुमति के बिना ही वह कुकर्मों मे प्रवृत्त होता है। अपनी आत्मा के प्रति भी वह निष्ठावान नहीं रह पाता है । और इन सबका कुफल प्रकट होता है-उसके पतन और विनाश के रूप मे । जम्बूकुमार ने आगे कहा कि कनकश्री तुमने एक बात और भी कही थी कि मुझे इस समय साधना की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं करनी चाहिए और इसका कारण तुमने यह प्रकट किया था कि दुःख के समय मे ही मनुष्य भगवान का स्मरण करता है, सुख मे नही और मेरे पास समस्त सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं । अब तनिक मेरी धारणा से भी परिचित होने का प्रयत्न करो। कनकश्री प्रथम तो मैं इसे अनुचित मानता हूं कि केवल दुख मे ही साधना करनी चाहिए, सुख मे नही और फिर न तो ये उपलब्ध सुख मेरे लिए सुख हैं और न ही ऐसे किन्ही सुखो की प्राप्ति के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ। मैं तो चिर-प्रभावकारी, सर्वोच्च और यथार्थ सुख का अभिलाषी हूँ। इन तथाकथित सुखो के फेर मे पडकर मैं अपनी आत्मा के साथ अन्याय नही कर सकता और न ही इनके प्रलोभन मे पडकर मैं अन्यान्य पाप कर्मों मे प्रवृत्त होने को तत्पर हूँ। मुझे चरक ब्राह्मण का प्रसग स्मरण है जो मुझे नित्य ही इस सम्बन्ध मे सावधान करता रहता है । लो तुम्हे भी सक्षेप मे चरक की कथा सुनाता हूँ। सम्भव है तुम्हे भी उससे कुछ लाभ प्राप्त हो।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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