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________________ ५ : रानी कपिला की कथा • पद्मसेना का प्रयत्न जम्बूकुमार की धारणाओ और सज्ञानता से समुद्रश्री तो प्रभावित हो गयी, किन्तु समुद्रश्री की पराजय ने जम्बूकुमार की शेष पत्नियो के दुम्साहम को और अधिक उत्कट बना दिया । पद्मसेना को दृढ आत्मविश्वास था कि वह निश्चय ही अपने पति को ससाराभिमुख कर देगी। उसने अतुलित दर्प के साथ समुद्रश्री को सम्बोधित करते हुए कहा कि तुझे लज्जा नहीं लगती, कुमार के विचारो का समर्थन करते हुए । हम लोगो के सामने ही बढबढकर बातें बनाना जानती है क्या । चली थी स्वामी को उनके रास्ते के हटाने के लिए और हो गयी उनकी पिछलग्गू । धिक्कार है तुझे !! लेकिन समुद्रश्री, हमारे पतिदेव तेरे जैसी को ही अपने तर्को से हरा सकते हैं । अब बारी मेरी है। देख अब मेरा लोहा ! मैं स्वामी को प्रीति के रंग मे रग कर ही दम लूंगी । अपनी बात मनवाना मैं खूब जानती हूँ। पद्मसेना के इस अभिमान की कोई भी प्रतिक्रिया कुमार पर नहीं हुई । वे सर्वथा शान्त एव गम्भीर बने रहे । अपने मुख पर लटक आयी केश-लट को पद्मसेना अपनी गर्दन के एक झटके से पीछे उछाल कर कुमार मे कुछ कहना ही चाहती थी कि उन्होने वीच ही मे अवरोध उपस्थित कर दिया। जम्बूकुमार ने अत्यन्त शान्त स्वर मे कहा कि पद्मसेना | मैं तुम्हारे प्रति भी आदर का
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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