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________________ सुख-लोलुप कौए को कथा | १०५ तुम जिन्हे मेरे लिए उपलब्ध सुख समझ रही हो वे मुझे सन्तोष भी तो नही दे सकेंगे । एक सुख की अभिलाषा पूर्ण होते-होते अन्य अनेक अभिलाषाओ को जन्म देगी। मेरा मन इन प्रवचनाओ के हाथ का खिलौना बन जायगा और यत्र-यत्र भटकता रहेगा। और मेरे लिए उपलब्धि के नाम पर शून्य ही रहेगा । मैं एक वार जब इस चक्र से मुक्त हो गया हूँ तो पुनः स्वयं को इसमे ग्रस्त नही होने दूंगा। अपनी आत्मा का सुख और उत्थान की यदि तुम्हे कामना है तो समुद्रश्री, मैं तुम्हे भी इस छलावे से दूर रहने की सम्मति दूंगा । इसी मे मेरा, तुम्हारा, सभी का मगल है। ___जम्बूकुमार के कथन के समाप्त होते-होते समुद्रश्री का मन अभिभूत हो उठा। उसे अपना दृष्टिकोण सारहीन प्रतीत होने लगा और जम्बूकुमार का एक-एक शब्द उसके मानस मे जमने लगा। भावाकुल समुद्रश्री जम्बूकुमार के समक्ष नतमस्तक हो गयी और गद्गद स्वर मे कहने लगी कि हे स्वामी ! आपने मेरी आँखें खोल दी है। विवेकशील मनुष्य को वास्तविक सुखो की साधना ही करनी चाहिए और ये सासारिक सुख उस मार्ग मे बाधक बनते है, इनसे पीछा छुड़ा लेना ही उत्तम है । मैं आपके मार्ग मे प्रलोभन की दीवार खडी करूं-यह सर्वथा अनुचित है-~-मैं इसे भली-भांति समझ गयी हूँ। आपने मेरी सोई आत्मा को जगा कर मुझ पर बडा उपकार किया है, स्वामी । समुद्रश्री ने अपने पति की अनुगामिनी बनने का भी निश्चय कर लिया।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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