SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार आवरण जो कुछ ही पलो मे हट जाता है और भीतर मे दुःख प्रकट हो जाता है । पद्मश्री । मैं इन लौकिक सुखो के स्वरूप को भली-भाँति पहचान गया हूँ। मत मैं इसके चक्र से मुक्त हो जाना चाहता हूँ, विरक्त हो जाना चाहता हूँ। कीचड से किसी की प्यास नही वुझ सकती और इन भौतिक सुखो मे भी किसी को तृप्ति प्रदान करने की क्षमता नही होती। पर्याप्त चिन्तन के पश्चात् मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इन लौकिक सुखो और भौतिक साधनो के असमर्थ उपादानो को छोडकर हमे अलोकिक आनन्द की खोज करनी चाहिए। उसी अनन्त, वास्तविक और चिरशान्तिमय मुख की प्राप्ति मानव-जीवन का लक्ष्य है। इस परम-लक्ष्य को मैंने चुन लिया है और अब इस पथ से च्युत होना मेरे लिए रचमात्र भी सम्भव नही है । स्वर्ण और सौन्दर्य की चकाचौध भी अव मेरी दृष्टि से इस मार्ग को ओझल नही कर सकती। तुम मे से किसी को भी इस दिशा मे प्रयत्न नही करना चाहिए । ऐसा प्रयत्न शुभ तो है ही नही-उसमे सफलता भी असम्भव है । अपना कथन समाप्त कर जम्बूकुमार ध्यानमग्नसे हो गये । उनके नेत्र निमीलित हो गये। पद्मश्री जम्बूकुमार की गम्भीर मुद्रा को निहारती रह गयी । उसने मन ही मन पतिदेव के कथन और तर्कों के औचित्य को स्वीकार किया । उसे अपने अज्ञान का आभास भी होने लगा और अपनी कुचेष्टा पर लज्जा का अनुभव भी होने लगा । पद्मश्री ने श्रद्धा के साथ जम्बूकुमार को प्रणाम किया और उनके चरणो मे नतमस्तक हो गयी।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy