SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त परिचय स्नानका आनंद लेते थे । एक वार तो वे विना रस्सी वांधे नदीमें कूद पड़े और लगे डूबने, किन्तु संयोग से उनके मित्र व्रजलाल वहाँ समय पर आ पहुँचे और उन्हें बचा लिया । वि० सं० १९६६में सुखलालजी न्यायाचार्यकी परीक्षा में संमिलित हुए, पर दुर्भाग्यसे 'लेखक' निकम्मा मिला । सुखलालजी लिखाए कुछ, और वह लिखे कुछ । अंत में उन्होंने अपनी कठिनाई कालेज के प्रिन्सिपल श्री० वेनिस साहब से कही । वे अंग्रेज़ विद्वान सहृदय थे । विद्यार्थीकी वास्तविक स्थितिको समझकर उन्होंने तुरंत मौखिक परीक्षाकी व्यवस्था कर दी और स्वयं भी परीक्षकों के साथ बैठे | पंडितजीके उत्तर सुनकर श्री० वेनिस साहब अत्यंत मुग्ध हो गये और उन परीक्षकोंमेंसे एक श्री० वामाचरण भट्टाचार्य तो इतने अधिक प्रसन्न हुए कि उन्होंने सुखलालजी से अपने यहाँ पढ़ने आने को कहा । यह पंडितजीकी प्रतिभाका एक उदाहरण है । क्रमशः सुखलालजीने 'न्यायाचार्य ' उपाधिके तीन खंडोंकी परीक्षा भी दे दी, परंतु वि० सं० १९६९ में अंतिम खंडकी परीक्षाके समय परीक्षकों के ऐसे कटु अनुभव हुए कि परीक्षाके लिये उस कालेज भवन में फिर कभी पैर न रखनेका संकल्प कर पंडितजी बाहर निकल गये । इस प्रसंगके लगभग २२२३ वर्ष पश्चात् वि० सं० १९९२ में पाठ्यक्रम संशोधन समितिके एक सदस्य की हैसियत से उन्होंने उस भवन में सम्मानपूर्वक पुनः प्रवेश किया ! मिथिलाकी यात्रा वि० सं० १९६६-६७ तक पंडितजीने वनारस में जो भी ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त कर लिया; किन्तु उनकी जिज्ञासा और ज्ञानपिपासा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी । उनका मन अव विहार के विद्याधाम मिथिलाकी ओर दौड़ने लगा । ८ मिथिला प्रदेश यानी दरिद्रताकी भूमि; किन्तु वहाँके सरस्वती उपासक, ज्ञान- तपस्वी पंडितगण विद्याके ऐसे व्यासंगी हैं कि वे अध्ययन में अपनी दरिद्रताका दुःख ही भूल जाते हैं । नव्यन्याय का विशेष अध्ययन करनेके लिये पंडितजी बनारससे अब समय-समय पर मिथिला जाने लगे । मिथिलामें भी उन्होंने कम कष्ट नहीं झेला। वहां वे भोजन में पाते थे- दाल, भात और साग । मिथिलाकी सर्दी और फुसकी झोंपडीमें घास के कभी अगर दहीं मिल गया तो पड्स भोजन ! बरसातका मुक़ाबला करना लोहेके चने चबाना था |
SR No.010642
Book TitlePandit Sukhlalji Parichay tatha Anjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandit Sukhlalji Sanman Samiti
PublisherPandit Sukhlalji Sanman Samiti
Publication Year1957
Total Pages73
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy