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________________ आध्यात्मिक पत्र अनुभव होता है । यह ही भेदज्ञान है । रागसे पृथक् ज्ञानका अनुभव ऐसे ही होता है अन्यथा नही। योग होनेसे April में श्री गुरुदेवकी जन्मतिथि पर मिलना होगा। शुद्धात्मस्नेही. निहालचन्द्र कलकत्ता ८-११-१९६२ श्री गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सत्कार। आपका दीपावली कार्ड, तत्पश्चात् पत्र मिला । समझमे नही आता क्या लिखू ? उत्कृष्ट पुण्ययोगसे, ज्ञान-आनन्दकी खान अपूर्व सत्पुरुष श्री गुरुदेव निमित्तरूपे आपके समीप है, जिनकी निरन्तर ध्वनिका संकेत उनकी ओरसे लक्ष्य हटाकर, स्वकी अन्तरंग खानका लक्ष्य कराता है । जहाँसे यथार्थ न्याय सुख आदि उघड़ते रहते है। अतः स्वअस्तित्वमयी त्रिकाली आत्मामे पसर कर सुखास्वादन करो ! जिस स्वादके वशीभुत देवादिक प्रत्ये भी उदासीनता होने लगती है । इनमे अर्थात् परमें एकान्त रस व जागृति होना स्वभावके अरसपनेका सूचक है। वर्तमानसे ही 'म' परिपूर्ण सुखका सागर हूँ। वर्तमानमें ही देवादिकसे अथवा इन आश्रित रागसे किंचित् लाभ नही, लाभ मानना ही स्वका अलाभ है । यह न्याय, तीरकी तौर बाह्य वृत्ति लक्ष्य-प्रति असर करे तो वर्तमानमें ही स्वभावोन्मुख प्रयत्न होवे ।... शुद्धात्मस्नेही निहालचन्द्र । सम्पूर्ण सिद्धातका सार का सार तो बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुख होना, वह है। - पूज्य गुरुदेवश्री
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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