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________________ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) छूनेवाली भी नहीं है; अधूरी दशाके विकल्पांशोमें श्रद्धामे जमी हुई इस मूर्तिका एक रस आलिगन कहाँ ! चैतन्यमूर्तिके एक रसमे ओत-प्रोत रहे, यह ही भावना। धर्मस्नेही निहालचन्द्र [३० कलकत्ता ८-११-१९६२ श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सत्कार । वात्सल्यानुराग प्रेरित आपका पत्र, कुटुम्बियोका दीपावली कार्ड मिला । श्री सेठियाजी सोनगढ़ पहुंचे, जाना । ज्ञानानन्दी गढ़, वीतरागप्रधानी गुरुदेवकी प्रशस्त राग अंश निमित्तक सिहगर्जनाओंसे ४७ नयोपर पुण्यवान मुमुक्षुओंको उल्लासित प्रवचनोका लाभ हुआ, जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । पुण्यअभावयोगसे इस अवसरसे मुझे वंचित होना पड़ा, इसका खेद रहा । श्री गुरुदेवके प्रवचनोका मुख्य सार मैने यह लिया है : . वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ। वर्तमानसे ही देवादिक पर अथवा उनआश्रित रागसे किचित्मात्र लाभका कारण नही । लाभ मानना ही अलाभ है। वेदनके अलावा अन्य कोई क्रिया जीवकी नही । शरीरआश्रित अथवा परआश्रित आकुलित वेदनको, समकाले ज्ञानवेदन द्वारा, गौण करते-करते नाश करना मुमुक्षुओका ध्येय है। यह ज्ञानवेदन अखण्ड त्रिकाली अपरिणामी ध्रुव अस्तित्वमयी स्वपनेके अनुभवमे सहज ही उदय होता है। रागसे भेद करता (ज्ञान) निशंकित निराकुल सुख वेदनके साथ प्रत्यक्ष प्रमाणरूप प्रगट होता है । वृद्धि पामता-पामता अनन्त सुख व ज्ञानका लाभ करता है । अप्रसिद्ध अवेदक मुख्य अखण्ड स्वभावमे श्रद्धाके स्वअस्तित्वरूपमे प्रसरते ही प्रसिद्ध वेदन गौण होकर एक ही काल त्रिकाली व वर्तमान दोनो भावोका
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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