SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) गया । दूसरा बन्दोबस्त जल्द नही बैठ सका व मेरी अनुपस्थितिमे सब रकम साफ़ न हो जाये, ऐसा विकल्प उठ खड़ा हुआ । गृहस्थभूमिका है, शिथिल योग्यताकी विजय हो गई, रुकना हो गया ; बस इतनी ही बात है, अतः लिखना ठीक नही समझा था ; और भी सहकारी कारणोने रुकनेमे ही सहायता दे दी। विहारके व राजकोटके कोई विशेष महाराजश्रीके उद्गार लिखना । व कोई महत्त्वपूर्ण घटना होवे तो लिखना ।...आप सबको सहजानन्दकी प्राप्ति होवे, यह ही इच्छा है। धर्मस्नही निहालचन्द्र आपने लिखा किशान्तिसे पत्र लिखनेकी फुर्सत नहीं है क्या? अभीशान्ति है यह बताने हेतु समाप्त किये बाद भी लिखनेका विकल्प हुआ है। "पर्याय एक ओरसे प्रवेश करती हुई दिखती है; दूसरी ओरसे रमती हुई दिखती है; तीसरी ओरसे उघड़ती हुई दिखती है। वस्तु विचित्र है! दीपककी लौ बुझनेके पहले समय अधिक प्रकाशित होती है। सहजानन्दसे च्युत होनेवाला पुरुषार्थ निर्बल होनेके पहले समय अधिक उग्र होता है। द्रव्य तो सहज पुरुषार्थका पिण्ड है, उसकी दृष्टिमे सहज ही च्युति नही होती।" "जीवनके परिणमनकी अति विचित्रता देखो रे ज्ञानी !" कलकत्ता २५-६-१९५४ पूज्य गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी प्रत्ये निहालचन्द्रका धर्मस्नेह । पत्र पहले भी आपके मिले थे व एक अब भी कलकत्तामे मिला । मै करीब दो माहसे कलकत्तासे बाहर था, अतः जवाब आदि नही दिया जा सका था। क्या बताऊँ, हृदयको पूर्णतया व्यक्त नहीं किया जा सकता
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy