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________________ [२४] करनेके लिए कमरेसे आये और एक-आध रोटी खा कर ही पुनः कमरेमे चले जाते और द्वार बन्द कर लिया करते । बहुधा दीर्घ समय ध्यानमें बैठनेके दौरान थकान लगनेपर वे लेट जाते थे परन्तु पैरोकी पद्मासनमुद्राको यथावत् रखते हुए ही - इससे स्पष्ट है कि शारीरिक अनुकूलताके लिए वे ऐसे मुद्रा बदल लेते थे, परन्तु उपयोगकी अंतर्मुखताका प्रयास यथापूर्व बना रहता था। सभी सम्यग्दृष्टियोके अनन्तानुबन्धी कषाय चौकड़ीका अभाव होनेसे उनके तनिमित्तक निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि - इन तीन प्रकारकी निद्रा-प्रकृतियोका भी अनुदय रहता है । श्री सोगानीजीका निद्रा-काल भी सहज ही अति अल्प हो गया था जो उनकी अंतर्दशा व उग्र पुरुषार्थको लक्षित करता है । उन्हीके वचनानुसार : "मुझे तो ( सोते वक्त) पहले दो घण्टे नीद नही आती, फिर थोड़ी नीद आ जाए तो जगते ही ऐसा लगे कि क्या नीद आ गई थी !! फिर नीद उड़ जाती है; और यही ( स्वरूप-घोलन) चलता रहता है।" श्री सोगानीजीने अपनी प्रवर्तती दशाके सम्बन्धमे जो उल्लेख किया है, वह प्रस्तुत है : D"गुरुदेवश्रीके गुरुमंत्रका उपयोग करते रहनेसे अर्थात् अखण्ड ज्ञानस्वभावका आश्रय लेते रहनेसे, जैसे-जैसे पुण्यविकल्प सहज ही टूटते जाते हैं वैसे-वैसे आत्मामें सर्व विशद्धि सहज ही विकसित होती जाती -(पत्रांक : २, अजमेर | २९-९-४९) - "मैं मुझमे मेरे गुरुदेवको देखनेका सतत प्रयत्न करता रहता हूँ और जब-जब गाढ दर्शन होता है तब-तब अपूर्व-अपूर्व रसास्वादका लाभ लेता रहता हूँ, मानसिक विकल्परूपी भारसे हलका होता रहता हूँ, सहज ज्ञानघन स्वभावमे वृद्धि पाता रहता हूँ।" - ( पत्रांक : ३, अजमेर | ३-७-५०) "सहज परम निवृत्तिमय कारणपरमात्माका आश्रय पूज्य गुरुदेवने
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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