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________________ तत्त्वचर्चा ७९ होगा ही ! [ - ऐसी प्रतीति आ जाती है । ] लेकिन मेरेको तो उससे भी प्रयोजन [दृष्टि ] नही । ९. ܐ܀ 'कुछ करना' [ कर्तृत्वबुद्धिसे ] सो मरने बरावर हे । मुझे शुरूसे ही 'कुछ करनेके भादमे' मरने जैसा बोझा लगता था । शुभपरिणाम होते (तो) मै भट्ठीमे जल रहा हॅू - ऐसा लगता था । समुद्रके जलमेसे एक बूँद उड़कर बाहर पड़े तो उस बूँदको रेत चूस कर ख़त्म कर देगी; और यदि गर्म रेत हो तो बूँद तुरत ख़त्म हो जावेगी । वैसे ही परिणाम बाहरकी ओर जाये (तो) उसमे दुःख ही दुःख है ।१०. .. द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे तो शुद्धपर्याय भी परद्रव्य है । जब मेरे अस्तित्वमे वो [ शुद्धपर्याय ] नही तो फिर रागकी तो बात ही क्या ? [ द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षा अर्थात् द्रव्यस्वभावमे अहनावरूप श्रद्धाका परिणमन होना । ऐसी श्रद्धा होनेपर ही पर्याय शुद्ध होती है परन्तु श्रद्धा उगमे अभाव नही करती 1 ] ११. 7 पर्यायमे तीव्र अशुभपरिणाम हो या उत्कृष्टसे उत्कृष्ट शुद्धपर्याय हो 'मेरे' मे [एकरूप द्रव्यस्वभावमें] कुछ भी विगाड़-सुधार नही होता, 'मैं' तो वैसा का वैसा ही हूँ । १२. + [ द्रव्यदृष्टिके जोरमे ] केवलज्ञानसे भी हमारे प्रयोजन नही; मोक्षसे भी प्रयोजन नही; वो तो हो ही जाता है ।१३. * ज्ञानका विषय, दृष्टिके विषयका प्रयोजन साधने जितना ही लक्ष्यमे लेना ठीक है; बाकी उसका [ इससे अधिक ] प्रयोजन नही है । [ प्रयोजनभूत 'स्वरूप' के अलावा जाननेमे आते हुए
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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