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________________ ७८ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) बात चलती हो, तब एकको दूसरेमे मिलाकर, घोटाला नहीं करना चाहिए। ५. [अन्त तत्त्व और बहिर्तत्त्वकी अपेक्षायें बताते हुए कहा ] जब शुद्धपर्याय बहिर्तत्त्व है, ध्यान बहिर्तत्त्व है, तब ध्रुवतत्त्व (परम पारिणामिकभाव, कारणपरमात्मा) अन्तःतत्त्व है । जब दो घरकी बात चलती हो, तब उसमे तीसरे घरकी टॉग (बात) डालनेसे घोटाला हो जाता ध्रुवतत्त्व अन्तःतत्त्व है, तब शुद्धपर्याय बहिर्तत्त्व है । शुद्धपर्यायको अन्तःतत्त्व कहे, तब अशुद्धपर्यायको बहिर्तत्त्व कहते हैं। अशद्धपर्यायको अन्तःतत्त्व कहे, तब कर्मको बहिर्तत्त्व कहते है । कर्मको अन्तःतत्त्व कहें, तब नोकर्मको बहिर्तत्त्व कहते हैं। - ऐसे [अपेक्षित विवक्षानुसार] सब घटा (समझ) लेना । ६. सिद्ध (पर्याय)से भी मैं अधिक हूँ क्योकि सिद्ध (दशा) तो एक समयकी पर्याय है; और मै तो ऐसी-ऐसी अनन्त पर्यायोका पिण्ड हूँ। ७. जैसे मेरुपर्वत अडिग है; 'मैं' भी (स्वभावसे) वैसे ही अडिग हूँ। मेरुमें तो परमाणु आते-जाते हैं, लेकिन मेरेमें तो कुछ भी आता-जाता नहीं - ऐसा 'मैं' अडिग हूँ। ८. 'मै वर्तमानमें ही मुक्त हूँ, आनन्दकी मूर्ति हूँ, आनन्दसे भरचक समुद्र ही हूँ - ऐसी दृष्टि हो, तो फिर मोक्षसे भी प्रयोजन नही; मोक्ष हो तो हो, न हो तो भी क्या ? [ पर्यायकी इतनी गौणता द्रव्यदृष्टिमे हो जाती है ।] मेरेको तो वर्तमानमें ही आनन्द आ रहा है फिर पर्यायमें तो मोक्ष
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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