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________________ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - १) उनके ऐसे सिहनादरूप उपदेशको पाकर भी फिर दीनता क्यों ? वर्तमानमे ही अपने सिह स्वभावको - अनन्त शक्तियोंके धामको सम्भालो ! दीन विकल्प निराश्रय होकर टूटते जावेगे, जड़ कर्म बिखरते जायेगे, सुख-शान्तिका प्रत्यक्ष वेदन क्षणे-क्षणे बढ़ता जायेगा। बम्बईमे नागरभाई आदि मुमुक्षुओंसे भी मिलना हुआ था। आपका जिक्र भी आया था। निरन्तर अविच्छिन्न धाराए स्वरूपसुखमे मग्न रहो । इससे च्युति करानेवाले विकल्प, विशेष विशेष मग्नता होते-होते, ढीले पड़ते-पड़ते क्षय हो जायेंगे। ऐसा ही श्री गुरुदेवका अलौकिक उपदेश जयवन्त वर्तो ! धर्मस्नेही निहालचन्द्र सोगानी [४१] कलकत्ता १४-७-१९६३ श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सत्कार । गत माह आपका पत्र आया था, तब मुझे बम्बईमे यहॉसे Redirect हो कर मिला था। इसके पहले करीब जनवरीमे पत्र आया था ।... तत्त्वदृष्टिए, स्वभावबलमे जमते ही आना-जाना व न आना-जाना, जुदे ज्ञानमें सहज ही मोहभाव प्रतिभासित होते है; यह मोहभाव त्रिकालमे पौद्गलिक ही है, तो इनकी पकड़ क्यो ? यह हमारे हैं ही नही। - ऐसा इनसे भिन्न अनुभव, मात्र हमारा लक्ष्य हो जाना चाहिए। "भेदज्ञानसे भ्रम गयो, नही रही कुछ आश, धर्मदास क्षुल्लक लिखे, अब तोड़ मोहकी पाश" पूज्य श्री गुरुदेवके उपदेशका सार, द्वादशांगका सार तो केवल एक ही है कि 'अपने त्रिकाली स्वभावमें जैसे-तैसे भी होवे दृष्टि पसारकर
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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