SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक पत्र ४३ [४०] कलकत्ता ४-७-१९६३ श्री सद्गुरुदेवाय नमः आत्मार्थी शुद्धात्म सत्कार | आपके पत्र दहेगॉव व देहली दोनों स्थानोसे मिले । मै करीब एक माहसे बाहर था । पन्द्रह दिन करीब बम्बई भी रहना हुआ । पुण्ययोगके अभावसे, महाराज साहबका सोनगढ़ लौटनेका प्रोग्राम लम्बानेसे, सोनगढ़ जानेका सोचा हुआ मेरा प्रोग्राम रुक गया । आप हर पत्रके साथ पतेका खाली लिफ़ाफ़ा भिजवाते हो, अब ऐसे नही भेजे, पता मैने नोट कर लिया है। लिखनेका विकल्प ओछा होनेसे जवाबमे देर होती है। परन्तु लिखना, विकल्प होना क्रियाये तो मुमुक्षुओको हेय बुद्धिसे सदैव सहज गौण ही रहती है। यह क्रियाये तो आचार्योने उन्मत्तोंकी कही है। पत्र बहुत ही विनयभरे आते हैं । विनयभावोका एकान्त वेदन नही होना चाहिये। सहज सामर्थ्यमे पसरनेसे, स्वरूपके बलसे, सहज ही परिणामोमे नही घसीटीजेगे; वह परिणामोका वेदन, ज्ञायकभावकी मुख्यतामे हेय बुद्धिए गौण (क्षणे-क्षणे) होता जायेगा । पराश्रित विनयभाव दुःखभाव है, उपादेय कैसे होवे ? द्वादशांगका सार तो श्री गुरुदेवने फ़रमाया है कि : "वर्तमानमें ही मूल, कायमी, त्रिकाली, ध्रुव स्वभाव, परिणामोंका विश्रामधाम 'मैं' हूँ। इस स्थानमे दृष्टि पसारकर, स्वयं व्यापक होकर, परिणामोकी पकड़ छोड़ दो, इन्हे सहज ही परिणमने दो, इनमे अटको नही । परिणमन स्वभावके समय ही अपरिणामी स्वभाव भी साथ ही साथ है । इस अपरिणामी स्वभावको नित्य पकड़े रहो, यहाँ जमे रहो; इसके बिना निस्तार नहीं है। पत्रादिकका आधार, शास्त्राधार, अरे ! प्रत्यक्ष तीर्थकरकी आधारबुद्धि भी स्वयं वर्तमान सामर्थ्यका अनादर करनेवाली है।" ऐसा कह कर ही परम कृपालु गुरुदेवने वर्तमानसे ही उनपरसे दृष्टि हटाकर, अघट-बढ़ त्रिकाली सदृश्य सामान्यस्वरूपमे अपना अड्डा जमाकर निश्चल बिराजनेको कहा है।
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy