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________________ सप्ततिकाप्रकरण उदयप्रकृतिस्थान और सत्त्व प्रकृतिस्थानोका संक्षेपसे कथन करेंगे, सुनो । जो सक्षेप कथन महान् अर्थवाला और टिवाद अंगरूपी महार्णवकी एक बूंदके समान है। विशेपार्थ मलयगिरि आचार्यन इस गाथामें आये हुए 'सिद्धपद' के दो अर्थ किये है। जिन ग्रंथोक सब पद सर्वज्ञोक्त अर्थका अनुसरण करनेवाले होनसे सुप्रतिष्ठित हैं, वे ग्रथ सिद्धपद कहे जाते हैं यह पहला अर्थ है। इस अर्थके अनुमार प्रकृतमे सिद्धपद शन्द कर्मप्रकृति आदि प्राभृतोका वाचक है,क्योंकि इस सप्ततिका नामक प्रकरणको ग्रंथकारने उन्ही कर्मप्रकृति आदिके आधारसे संक्षेप रूपमें निवद्ध क्रिया है। गाथाके चौथे चरणमें ग्रंथकारने स्वयं इसे बष्टिवादरूपी महार्णवकी एक बूंदके ममान बतलाया है। मालूम होता है इसी वातको ध्यानमें रखकर मलयगिरि आचायने भी सिद्धपटका उक्त अर्थ किया है। तात्पर्य यह है कि दृष्टियाद नामक बारहवें अगके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका चे पाँच भेद हैं। इनमें से पूर्वगतके उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं, जिनमे दूसरे भेदका नाम अग्रायणीय है। इसके मुख्य चौदह अधिकार हैं जिन्हे वस्तु कहते हैं । इनमेसे पाँचवीं वस्तुके बीस उप अधिकार हैं जिन्हे प्राभूत कहते है। इनमें से चौथे प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है। मुख्यतया इसीके आधारसे इस समतिका नामक प्रकरणकी रचना हुई है। इससे हम यह भी जान लेते हैं कि यह प्रकरण सर्वनदेवके द्वारा कहे गये अर्थका अनुसरण करनेवाला होनेसे प्रमाणभूत है, क्योकि जिस अर्थको सर्वज्ञदेवने कहा और जिसको गणधर देवने वारह अंगोमे निवद्ध किया उसीके अनुसार इसकी रचना हुई है। तथा जिनागममें जीवस्थान और गुणस्थान सर्वत्र प्रसिद्ध हैं या आगे ग्रन्थकार स्वयं जीवस्थान और गुणस्थानोंका आश्रय लेकर
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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