SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ श्रीवीतरागाय नम * 'सप्ततिका प्रकरण (पष्ठ कर्मग्रन्थ ) आगममें बतलाया है कि सबसे पहले सर्वनदेवने अर्थका उपदेश दिया। तदनन्तर उसको अवधारण करके गणधर देवन तदनुमार बारह अगोको रचा। अन्य आचार्य इन बारह अंगोको साक्षान् पढ़कर या परपरासे जानकर ग्रय रचना करते हैं। जो शास्त्र या प्रकरण इस प्रकार संकलित किया जाता है, बुद्विमान् लोग उसीका अादर करते हैं, अन्यका नहीं। इतने पर भी वे लोग किसी शाबके अध्ययन और अध्यापन आदि कार्यों में तभी प्रवृत्त होते हैं जब उन्हें उस शाखमें कहे गये विपय आदिका ठोक तरहसे पता लग जाता है, क्योंकि विपय आदिको विना जाने प्रवृत्ति करनेवाले लोग न तो बुद्विमान् ही कहे जा सकते हैं और न उनके किमी प्रकारके प्रयोजनकी ही सिद्वि हो सकती है. अत इस सप्ततिका प्रकरणके आदिमें इन दो वातोका बतलाना आवश्यक जानकर प्राचार्य सबसे पहले जिसमें इनका उल्लेख है, ऐसी प्रतित्रागाथा को कहते है सिद्धपएहि महत्थं बंधोदयसंतपयडिठाणाणं । वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिठिवायस्स ॥१॥ अर्थ-सिद्धपद अर्थात् कर्मप्रकृतिप्राभृत आदिके अनुसार या जीवस्थान और गुणस्थानोंका आश्रय लेकर वन्धप्रकृतिस्थान,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy