SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ सप्ततिकाप्रकरण निमित्त कारण माने गये हैं। ये निमिच सस्कार रूपमें श्रात्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल परिणति के पैदा करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तों के सहमाव और भसद्भाव पर आधारित है। जब तक इन निमित्तोंका एक क्षेत्रावगाह सश्लेशरूप सम्बन्ध रहता है तब तक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध छूटते ही नीव शुद्ध दशाको प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शनमें इन्हीं निमित्तोंको कर्म शब्दसे पुकारा गया है। ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके मिलने पर राग होता है। जुगुप्पाकी सामग्री मिलने पर ग्लानि होती है। धन समितिको देखकर लोम होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेनेको भावना होती है। ठोकर लगने पर दुख होता है और और माला का सयोग होने पर सुख । इसलिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही आत्माको विविध परि. एतिके होनेमें निमित्त नहीं हैं किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है अत. कर्मका स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये । ___ परन्तु विचार करने पर यह युक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंग में वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्रो कुछ भी नहीं कर सकती हैं। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गया है उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होने पर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता हैं कि अन्तरंगमें योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्मके विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक नन्तर है। कर्म चैनी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीका वैसी योरपतासे कोई सम्बन्ध नहीं। कमी वैसी योग्यताके सहभावमें भी वाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy