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________________ प्रस्तावना कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है किन्तु इसका उदीरणा और संक्रम नहीं होता। निकाचना-कर्मकी वह अवस्था जो उत्कर्पण, अपकर्षण, उदीरणा और सक्रम इन चारफे अयोग्य होती है निकाचना कहलाती । इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है। यदि अनुदय प्राप्त होता है तो परमुसेन उदय होता है नहीं तो स्वमुखेन ही उदय होता है। उपशान्त और निधत्ति अवस्था को प्रात कर्म का उदयके विषय में यही नियम जानना चाहिये। यहा इतना विशेष जानना चाहिये कि मातिशय परिणामों से कर्म की उपशान्त, निर्धात और निकाचनारूप अवस्थाएं बदली भी जा सकती हैं। ये कर्म की विविध अवस्थाए हैं जो यथायोग्य पाई जाती हैं। कर्म की कार्य मर्यादा-कर्मका मोटा काम जीवको समारमें रोक रखना है। परावर्तन ससारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे वह पांच प्रकारका है। कर्मके कारण ही जीव इन पांच प्रकारके परावर्तनों में घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियां और उनमें रहते हुए जीवकी जो विविध अवस्थाएँ होती है उनका मुख्य कारण फर्म है। स्वामी ममन्तभद्र आप्तमीमांसामें कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं कामादिप्रभवचित्रः कर्मवन्धानुरूपतः । 'जीवकी काम क्रोध आधि रूप विविध अवस्थाएँ अपने अपने कर्म के अनुरूप होती हैं।' यात यह है कि मुक दशामें जीवकी प्रति समय जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग अलग निमित्त कारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बन सकती। किन्तु ससारदशामें वह परिणति प्रति समय जुदी जुदी होती रहती है इसलिये उसके जुदे जुदे
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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