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________________ अयोगिकेवलीके कार्य ३७५ के द्वारा प्रतिसमय वेद्यमान प्रकृतियोमें संक्रम करते हुए अयोगिकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय तक वेद्यमान प्रकृतिरूपसे वेदन करते हैं। अब अयोगिकेवलीके उपान्त्य समयमें किन प्रकृतियोका क्षय होता है इसे अगली गाथाद्वारा बतलाते है देवगइसहगयाओ दुचरमसमयभवियम्मि खीयंति सविवागेयरनामा नीयागोयं पि तत्थेव ॥६॥ अर्थ-अयोगी अवस्थाके उपान्त्य समयमे देवगतिके साथ बँधनेवाली प्रकृतियोका क्षय होता है। तथा वहीं पर जिनका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं है उनका तथा नीचगोत्र और किसी एक वेदनीयका भी क्षय होता है। विशेषार्थ-जैसा कि पहले वतला आये हैं कि अयोगी अवस्थामे जिन प्रकृतियोका उदय नहीं होता उनकी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालसे एक समय कम होती है और इसलिये उनका उपान्त्य समयमे चय हो जाता है। किन्तु वे प्रकृतिया कौनकौन हैं इमका विचार वहाँ न करके प्रकृत गाथामे किया गया है। यहाँ बनलाया है कि जिन प्रकृतियोका देवतिके साथ बन्ध होता है उनकी, नामकी जिन प्रकृतियोका अयोगी अवस्थामें उदय नहीं होता उनकी तथा नीचगोत्र और किसी एक वेदनीयकी अयोगिकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है। देवगतिके साथ बंधनेवाली प्रकृतियाँ दस हैं जो निम्नप्रकार हैं-देवगति, देवानुपूर्वी वैक्रियशरीर, वैक्रियवन्धन, वैक्रियसघात. वैक्रिय गोपाग, आहारक शरीर आहारकबन्धन, आहारकसंघात, आहारकागोपाग | गाथामें नामकर्मकी,
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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