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________________ ३७४ सप्ततिकाप्रकरण तत्पश्चात् बादर वचनयोगको रोकते हैं। इसके बाद सूक्ष्म काययोगके द्वारा बादर काययोगको रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म मनोयोगको रोक्ते है। तत्पश्चात् सूक्ष्म वचनयोगको रोकते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोगको रोकते हुए सूक्ष्म क्रिया प्रतिपात ध्यानको प्राप्त होते हैं। इस ध्यानकी सामर्थ्यसे आत्मप्रदेश संकुचित होकर निश्छिद्र हो जाते है। इस ध्यानमे स्थितिघात आदिके द्वारा सयोगी अवस्थाके अन्तिम समय तक आयुकर्मके सिवा भवका उपकार करनेवाले शेप सब काँका अपवर्तन करते है जिससे सयोगिकेवलीके अन्तिम समयमें सव कर्मोंकी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालके बरावर हो जाती है। यहाँ इतनी विशेपता है कि जिन कर्मोंका अयोगिकेवलीके उदय नहीं होता उनकी स्थिति स्वरूपकी अपेक्षा एक समय कम हो जाती है किन्तु कर्म सामान्यकी अपेक्षा उनकी भी स्थिति अयोगिकेवली गुणस्थानके कालके बरावर रहती है। सयोगिकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें कोई एक वेदनीय, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामण शरीर, छह सस्थान, पहला संहनन, औदारिक आंगोपांग, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छास, शुभ अशुभविहायोगति, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण इन तीस प्रकृतियोके उदय और उदीरणाका विच्छेद करके उसके अनन्तर समयमे वे अयोगिकेवली हो जाते हैं। अयोगिकेवली गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। इस अवस्थामें वे भवका उपकार करनेवाले कर्मोंका क्षय करनेके लिये व्युपरतक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। वहाँ स्थिति घात आदि कार्य नहीं होते। किन्तु जिन कर्मोंका उदय होता है उनको तो अपनी स्थिति पूरी होनेसे अनुभव करके नष्ट कर देते हैं। तथा जिन प्रकृतियोका उदय नहीं होता उनका स्तिबुक संक्रम
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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