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________________ ३५६ सप्ततिकाप्रकरण न एक आवलिका प्रमाण दलिकोंको और उपरितन स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका कालमे बद्ध दलिकोंको छोड़कर शेप दलिक उपशान्त हो जाते हैं । तदनन्तर प्रथम स्थितिगत एक चावलिका प्रमाण दलिकोंका स्तिवक संक्रमके द्वारा क्रमसे संचलन मायामें निक्षेप करता है और एक समय कम दो चावलिका कालमें बद्ध दलिकोंका पुरुषवेदके समान उपशम करता है और परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है । इस प्रकार J प्रत्याख्यानावरण माया और प्रत्याख्यानावरण मायाके उपशम होनेके बाद एक समय कम दो आवलिका कालमें सन्चलन मायाका उपशम हो जाता है। जिस समय संज्वलन मायाके बन्ध, उदय और उदीरणाका विच्छेद होता है उसके अनन्तर समयसे लेकर सज्वलन लांभवी द्वितीय स्थितिसे दलिकोको लेकर उनकी लोभवेदक कालके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण प्रथम स्थितिकरके वेदन करता है । इनमें से पहले विभागका नाम अश्वकर्ण करण काल है और दूसरे त्रिभागका नाम किट्टीकरणकाल है। अश्वकरण कालमें पूर्वस्पर्धकोंसे दलिकोको लेकर अपूर्व स्पर्द्धक करता है । बात यह हैं कि जीव प्रति समय अनन्तानन्त परमाणुओं के बने हुए स्कन्धोको कर्मरूपसे ग्रहण करता है । इनमेंसे प्रत्येक स्कन्धमें तो सबसे जघन्य रसवाला परमाणु है उसके रसके बुद्धिसे छेद करने पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभाग प्रति - च्छेद प्राप्त होते हैं । अन्य परमाणुमें एक अधिक अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने हैं । अन्य परमाणुसे दो अधिक विभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सिद्धांके अनन्तवें भाग अधिक रसके अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होने तक प्रत्येक परमाणुमें रसका एक एक अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ाते जाना चाहिये ! T
SR No.010639
Book TitleSaptatikaprakaran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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